Sunday, October 23, 2011

प्रवासी श्रमिकों का दर्द न जाने कोय!

- दक्षिणी राजस्थान से करीब आठ लाख लोगों का काम की तलाश में दूसरे शहरों में
पलायन- कार्यस्थल पर होता है
शोषण नेशनल सेम्पल सर्वे ऑफिस (एनएसएसओ-१९९९-२०००) द्वारा कराए गए सर्वेक्षण के आंकड़ों पर नजर डाले तो देश के कुल श्रमिकों में से ९२ प्रतिशत (३६।९ करोड़) मजदूर असंगठित क्षेत्र में काम कर रहे हैं। असंगठित क्षेत्र से तात्पर्य है उन श्रमिकों या मजदूरों से है जो रोजगार के अस्थायी स्वरूप, जानकारी के अभाव और निरक्षरता व छोटे तथा बिखरे व्यवसायों आदि कारकों से अपने हितों के लिए स्वयं संगठित नहीं हो पाए हैं। उपरोक्त आंकड़ों में एक बड़़ा तबका उत्तरप्रदेश, बिहार, राजस्थान, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल आदि राज्यों से देश के बड़े व मझोले शहरों में काम की तलाश में जाता है, जिनको हम प्रवासी श्रमिकों के तौर पर पहचानते हैं। राजस्थान से भी रोजी रोटी की तलाश में लाखों प्रवासी श्रमिक प्रदेश की सीमाओं को लांघ कर दूसरे राज्यों में जाकर मजदूरी व छोटे-मोटा व्यापार करते हैं।
प्रवासी श्रमिकों के बीच काम कर रही स्वयंसेवी संस्था 'आजीविका ब्यूरोÓ द्वारा हाल में किए गए सर्वे के आंकड़ों को माने तो दक्षिणी राजस्थान के आदिवासी अंचल से करीब आठ लाख प्रवासी श्रमिक गुजरात के अहमदाबाद, सूरत, राजकोट, वड़ोदरा व मुम्बई, हैदराबाद, बंगलौर, दिल्ली आदि शहरों में मजदूरी व छोटे-मोटे धंधे करते हैं। इन शहरों में काम करने वाले श्रमिक लाचारी व बेबसी की जिंदगी बसर करते हैं और उनको आए दिन शारीरिक, मानसिक व आर्थिक शोषण झेलना पड़ता है।
आजीविका ब्यूरो के शोध समन्वयक संतोष पूनिया ने बताया कि उदयपुर, डूंगरपुर, बांसवाड़ा, राजसमंद के आदिवासी बहुल इलाकों से मीणा, भील, गरासिया व गमेती जातियों के पुरुष, महिलाएं व बच्चे गुजरात व महाराष्ट्र के शहरों में जाकर काम करते हैं। प्रवास का मुख्य कारण मौसमी बेरोजगारी, खेतीहर जमीन की कमी, कम कृषि उत्पादन, सिंचाई की कमी है। राजसमंद जिले में प्रवासी श्रमिकों की बेहतरी के लिए काम कर रहे स्वयंसेवी संस्था 'जतन संस्थानÓ के कार्यकारी निदेशक डॉ। कैलाश बृजवासी ने बताया कि खमनोर व कुम्भलगढ़ तहसील की प्रत्येक ग्राम पंचायत से ५०० से ५५० लोग जिले से बाहर काम की तलाश में प्रवास करते हैं, इनमें से अधिकतर भंगार कार्य, आइसक्रीम का ठेला, होटल व रेस्टोरेंट, घरेलू नौकर, कारखानों में कार्य, निर्माण कार्य, ड्राइवर, सिक्योरिटी गार्ड, दूग्ध कार्य व निजी संस्थानों में नौकरी करते हैं।
शहरों में श्रमिकों को कम मेहनताना, स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव, पहचान नहीं होने से पुलिस प्रताडऩा, तय समय से ज्यादा काम (१२ से १४) व यौन शोषण से भी जूझना पड़ता है। आमतौर पर नियोक्ता बाहर से आए प्रवासी श्रमिकों को कार्य पर लगाना पसंद करते हैं, इनसे अधिक घंटे काम लिया जाता है और उनको दी जाने वाली मजदूरी भी कभी-कभी निर्धारित न्यूनतम मजदूरी से काफी कम होती है। वहीं श्रमिकों की निरक्षरता, जानकारी का अभाव व गरीबी का फायदा उठाकर बिचौलिए काम दिलाने में उनका शोषण करते हैं। असंगठित क्षेत्र में श्रम अधिनियमों के विस्तार का अभाव है, रोजगार का स्वरूप मौसमी व अस्थायी किस्म का है। श्रमिकों की गतिशीलता अधिक है। कार्यस्थल पर मनमाने ढंग से पारिश्रमिक तय किया जाता है, श्रम अनियमित किस्म का है। संगठनात्मक सहायता का अभाव व मोलभाव करने की श्रमिकों की क्षमता बहुत कम है।
संसाधनों की कमी, दक्षता व कुशलता न होना और अस्थायी व टिकाऊ नौकरी का अभाव जैसी कुछ अन्य समस्याएं भी इनकी दुर्दशा का कारण हैं। प्रवासी श्रमिकों के हक की रक्षा के लिए बनी सरकारी एजेंसियां महज खानापूर्ति करने में जुटी हैं। इसका अंदाजा लगाया जा सकता है कि दक्षिणी राजस्थान के उदयपुर जिले में स्थित संभागीय श्रम कार्यालय में 'अंतरराज्यीय प्रवासी श्रमिक अधिनियम-१९७९Ó के तहत कोई मामला दर्ज नहीं है, जबकि आदिवासी बहुल इलाके से लाखों की संख्या में लोग बाहर काम की तलाश में जाते हैं व कई कार्यस्थल पर दुर्घटना का शिकार हो विकलांग या बुरी तरह घायल हो चुके हैं। गुजरात के (बीटी कॉटन) कपास के खेतों में काम करते हुए बच्चों की मौतें तो अखबारों की सुर्खियों भी बनी हैं। इसके बावजूद संभागीय श्रम आयुक्त पताजंलि भू का कहना है कि ऐसे मामलों में मृतक के परिजन व नियोक्ता के बीच समझौता हो जाता हैं, हमारे यहां शिकायत नहीं आती, जिसके चलते हम कार्रवाई नहीं कर पाते।इधर अधिनियम में समान मजदूरी, राजनैतिक व सामाजिक अधिकारों की रक्षा, बच्चों की शिक्षा, काम का अधिकार, रोजगार सुरक्षा, कार्यस्थल पर सुरक्षा, दुर्घटना लाभ, विधिक सहायता, दुर्घटना की स्थिति में क्षतिपूर्ति, रिटायरमेंट लाभ आदि के प्रावधान है, लेकिन सक्षम एजेंसी के अभाव में इन नियमों से प्रवासी श्रमिकों को कोई लाभ नहीं मिल पा रहा है।हालांकि कुछ स्थानीय स्वयंसेवी संस्थाओं ने प्रवासी श्रमिकों की मुश्किलों को हल करने के लिए पहचान कार्ड व उनके पंजीकरण का काम शुरू किया है, कौशल विकास व वित्तीय सेवाओं से जोडऩे के लिए प्रशिक्षण शिविर आयोजित कर उनको सक्षम बनाया है। एनजीओ की इस पहल से प्रवासी श्रमिकों की स्थितियों में सकरात्मक परिवर्तन हुए हैं। वहीं एडवोकेसी के चलते सरकार भी निर्माण व प्रवासी श्रमिकों की सामाजिक सुरक्षा के लिए कई कल्याणकारी योजनाएं लेकर आई है। हाल में ही राजस्थान व गुजरात सरकार द्वारा मिलकर गुजरात बाल श्रम व ह्यूमन ट्रैफिकिंग को रोकने के लिए संयुक्त प्रयासों के तहत बनाई गई टॉस्क फोर्स व लेबर हेल्प लाइन इसका उदाहरण हैं, लेकिन अब भी सरकार व स्वयंसेवी संस्थाओं से ऐसे ही और सकारात्मक प्रयासों की दरकार है, जिससे प्रवासी श्रमिकों को शोषण से पूर्णतय: मुक्त कराया जा सके।
साथ ही आदिवासी अंचल के लोगों को अपने जोधपुर, बीकानेर, बाड़मेर, पाली व नागौर (मारवाड़ क्षेत्र) के भाइयों से सीख लेनी होगी, जिन्होंने लाखों मुश्किलों व शोषण के बाद भी उद्यमिता के दम पर उपरोक्त शहरों में अपने बड़े-बड़े कारोबार स्थापित किए हैं और मारवाड़ी मानुष का नाम रोशन कर हजारों लोगों के रोजगार का जरिया बने हैं।
----अरुण कुमार वर्मा पूर्व छात्र, भारतीय जनसंचार संस्थान, नई दिल्ली
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