Wednesday, May 7, 2014

विकल्प

'मुझको तुम्हारे साथ नहीं रहना...।Ó
पत्नी ने लगभग चीखते हुए कहा था। प्रकाश सन्न रह गया। इस से पहले वो कुछ बोल पाता। पत्नी ने फोन काट दिया। रात के साढ़े ११ बज रहे थे। रूममेट सो चुके थे, लेकिन प्रकाश की आंखों से नींद गायब थी। बार-बार पत्नी के कह गए कर्कश शब्द उसके कानों में गूंज रहे थे। सारी रात उसने करवटें बदल कर गुजारी। अपने को ही कोषता रहा। सुबह भी उसका मन नहीं लगा। नित्यकर्म से निबट कर तैयार होकर ऑफिस आ गया। पर काम में मन कहां लगाना था। उसने ऑफिस के फोन से ही पत्नी को फोन लगाया। हालांकि वो गलत नहीं था, लेकिन फिर भी उसने पत्नी से माफी मांगी। पत्नी टस से मस नहीं हुई। प्रकाश निराश हो गया। यह निराशा उसे अवसाद के भंवर में डूबोती चली गई।
प्रकाश व कविता की शादी को अभी कुछ माह ही हुए थे। साल पूरा होने में दो महीने बाकी थे। हालांकि दोनों आपस में प्रेम करते थे। परिवार के लोगों ने यह जाना तो उन्होंने विरोध किया, लेकिन दोनों की दृढ़ता व एक दूसरे में विश्वास देखकर पैर पीछे ले लिए। प्रेम को 'अरेंजÓ कर लिया गया। दोनों परिवारों की असहमत रजामंदी से हुई शादी से युगल के अलावा कोई खुश नहीं था।
प्रकाश को शादी के लिए खासे पापड़ बेलने पड़े थे।
दिल्ली के एक प्रतिष्ठित जनसंचार महाविद्यालय से पढ़ाई के दौरान उसका परिचय कविता से हुआ था। जो बाद में प्रेम में परिवर्तित हो गया। कोर्स खत्म होने के बाद उसने रोजगार की तलाश शुरू कर दी थी। गुजरात की एक एनजीओ के साथ उसने काम शुरू किया, लेकिन वेतन ढग़ का नहीं मिलने से कुछ समय बाद उसने मध्यप्रदेश के एक प्रतिष्ठित अखबार के इंदौर संस्करण में नौकरी कर ली। यह नौकरी पिछली से बेहतर थी वा वेतन भी अच्छा था, लेकिन इतना नहीं की वो अपनी गृहस्थी शुरू कर सके। यहां से भी जल्द उसका मन उचट गया। काफी दिनों तक बेरोजगार रहा। काफी हाथ पांव मारने के बाद उसे फिर से उत्तरप्रदेश के एक मीडिया हाउस के इलाहाबाद संस्करण में नौकरी मिल गई। इलाहाबाद व घर रायबरेली में ज्यादा फासला नहीं था। इसलिए उसको यह नौकरी पसंद आई। इलाहाबाद में ही उसने कुछ परिचितों के साथ किराए का कमरा ले लिया। रोजगार में स्थायित्व आने के बाद उसने कविता के सामने शादी का प्रस्ताव रखा। परिवार वालों की थोड़ी ना नुकुर के बाद शादी भी हो गई, लेकिन नियती को युगल की खुशी मंजूर नहीं थी।
प्रकाश काम व परिवार में संतुलन बनाने की खूब कोशिश कर रहा था। वह तेजतर्रार पत्रकार था। किसी बड़े घोटाले के उसे सुराग मिले थे, जिसकी चर्चा उसने अपने संपादकीय सहयोगियों से की थी। वह इसे खुलासे के लिए जरूरी तथ्य व दस्तावेज जुटाने में दिन रात लगा था। इधर, जैसा लव कम अरेंज शादियों में होता है। परिवार के लोग खुश नहीं थे। प्रकाश की काम में व्यस्तता व कम आय को ससुराल के लोग ने मुद्दा बना लिया था। वे कविता को भरते। वहीं कविता को सास-ससुर का अपेक्षित स्नेह व सहयोग नहीं मिल रहा था। इसका परिणाम यह हुआ कि कविता ने प्रकाश को बात बेबात ताने देने शुरू कर दिए थे। वो उसे अलग रहने के लिए मजबूर करती थी।
एक बार कविता ने फोन पर कह ही दिया-
'मुझे साथ नहीं रख सकते तो शादी क्यों कीÓ
' थोड़ा सब्र करो, मैं कोशिश कर रहा हूं। जल्द ही मैं तुम्हे इलाबाद बुला लूंगा।Ó
'हूं...। यह मैं कितने दिनों से सुन रही हूं। हर बार तुम बहाने बनाते हो।Ó
हालांकि नौकरी से प्रकाश को वेतन अच्छा मिल रहा था, लेकिन वह इतना पर्याप्त नहीं था कि एकाएक अलग गृहस्थी शुरू की जा सके। वह यह बात कविता को समझाता, लेकिन कविता नहीं मानती। धीरे-धीरे छोटी-छोटी बातों पर बहस हो जाना आम बात होने लगी थी। कविता के ताने प्रकाश को परेशान करते पर वो सह जाता। अपने मां-बाप को सास-सुसर को समझाता, लेकिन वे कहते 'शादी अपनी पसंद से की है अब झेलो...।Ó वह सब में सामंजस्य बिठाने की कोशिश करता।
इधर, कार्यालय में भी उसके लिए सबकुछ ठीक नहीं था। काम का भारी दबाव था। सुबह दस बजे ऑफिस जाता तो रात के आठ नौ बजे तक रूम पर वापस आ पाता कभी-कभी १० या ११ भी बज जाते। अखबार की नौकरी ने उसकी सामाजिक जिंदगी को खत्म ही कर दिया था। बिगड़ता वैवाहिक जीवन व काम का दबाब ने उसकी सोचने-समझने व तर्क शक्ति को कुंद कर दिया था। वो प्रकाश जो कॉलेज के जमाने में सभी की जान हुआ करता था, जिसके हंसमुख मिजाज कर हर कोई कायल था। आज वो कुम्भला सा गया था, लेकिन फिर भी वो जी रहा था।
आखिर वो मनहूस रात भी आ गई। कविता को किसी बात पर उसकी सास ने डांट दिया। दोनों में तू-तू, मैं-मैं हो गई। कविता ने रात के साढ़े ११ बजे ही प्रकाश को फोन कर दिया। प्रकाश बस थोड़ी देर पहले ही कमरे पर आया था। खाना खाकर बैठा ही था। कविता ने शिकायतें शुरू कीं। प्रकाश उसे समझाता रहा, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। उलाहनों से उसके भी सब्र का बांध टूट गया। वो भी विफर पड़ा। फिर क्या था।
कविता ने बोल दिया-'मुझे तुम्हारे साथ नहीं रहना।Ó प्रकाश ने अगले दिन सुबह भी पत्नी से फोन पर बात की, लेकिन बात नहीं बनी। प्रकाश ने संपादक को छुट्टी की अर्जी दी। किसी से कुछ बोले बिना ही रूम पर आया। सामान पैक किया और घर (रायबरेली) के लिए निकल पड़ा। घर पहुंचते ही उसे पत्नी व माता-पिता की एक दुसरे को लेकर शिकातें सुनने को मिलीं। उसने सब को समझाया, लेकिन एक भी नहीं माना।
प्रकाश इतना परेशान हो गया कि रोने लगा। फिर भी किसी का दिल नहीं पसीजा। निराश व उदास अपने कमरे में आया और बिस्तर पर औंधे मुंह लेट गया। वह कुछ सोच नहीं पा रहा था। समस्या का कोई हल नजर नहीं आ रहा था। प्रकाश को एक एक कर पत्नी, मां-बाप, सास-ससुर, संपादक, सहकर्मी सब की चौं-चौं ही सुनाई दे रही थी। उसके कान बहरे हुए जा रहे थे। दिमाग की नसें फटी जा रही थीं। आंखों के सामने अंधेरा छा रहा था। इन सब से मुक्ति का उसे सिर्फ एक ही विकल्प नजर आया।
'आत्महत्या...Ó।
दूसरे दिन प्रकाश का शव उसके कमरे में फंखे से झूलते मिला।

लेखक- अरुण कुमार वर्मा, भारतीय जनसंचार संस्थान, नई दिल्ली के पूर्व छात्र हैं। वर्तमान में राजस्थान पत्रिका में कार्यर्त हैं।
(नोट- आत्महत्या विकल्प नहीं है। यह कायरों का काम है। हालातों से लडऩा चाहिए। काश काहानी के पात्र प्रकाश ने भी लड़ाई लड़ी होती तो इतना होनहार पत्रकार समाज को कितना कुछ दे पाता।
यह कहानी काल्पनिक है। जीवित या मृत व्यक्ति से कोई संबंध नहीं है। अगर नाम या अन्य कोई चीज मेल खाती है तो यह महज संयोग समझा जाए।)