Saturday, September 27, 2008

हिंदू या मुस्लिम



हिंदू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेडिये

अपनी कूर्सी के लिए जज्बात को मत छेडिये

हममें कोई हुण, कोई शक, कोई मंगोल है

दफ़न है जो बात उस बात को मत छेडिये

गर गलतियां बाबर की थी, जुम्मन का घर फिर क्यों जले

एसे नाजुक वक्त में हालात को मत छेडिये

है कहां हिटलर, हलाकू, जार या चंगेज खां

मिट गए सब कौम की औकात को मत छेडिये


छेडिये इक जंग, मिलजुल कर गरीबी के खिलाफ


दोस्त, मेरे मजहबी नगमात को मत छेडिये।


अदम गोंडवी

Monday, September 22, 2008

मेरी दोस्त

सांवली- सलोनी सी वो
झीलों के देश से
डरती है धूप से कहीं श्याम न हो जाए
श्याम कहीं उसका श्रृंगार हो न जाए।
वो पागल मस्तमौला हर चेहरे पर मुस्कान लाती
अपनी बातो से वो सबका मन छू जाती
आँखों में भरे सपने भावी जीवन के
बनाती मिटाती मिटा कर बनाती
चाहती हर रंग जीवन में भरना
लाल हरे नीले रंगों का संग करना
है अजब वो, पर गजब है उसके अंदाज
नखरों से नही प्यार से है उसका साज
सादगी उसमें बस्ती संस्कारो का श्रृंगार
सीधी वो भोली वो और कुछ खास
है दुआ ये रब दे उसे खुशियाँ अपार
तरक्की कामयाबी से हो जीवन गुलजार।
मेरी
दोस्त मधुलिका से आप भी हो रु-ब-रु।

Thursday, September 18, 2008

खोया राखी, सिंदूर, लाठी

लाशों के ढेर में शिनाख्त बच्चे की

उम्मीद-नउम्मीद अजीब कशमकश की

अपना नहीं तो लाल है किसी का

राखी है, सिंदूर है, लाठी है किसी का

किसकी लाश खोजू मैं, सब अपने

इस मौत के मंजर में अब नहीं अपने

छीना धमाको ने बेटा नहीं है

छीनी है राखी, लूटा है सिंदूर

तोडा है घर और छीना है सपना

कॉपी, कलम और किताबें खतम की

तोडा है चस्मा और बूढी लाठी

तोडी सुहागन के हाथो की चूड़ी

कुचला है मान अपने वतन का

करना ख़त्म अब इस द्हसत को है

इनको सबक अब हमें है सिखाना..........

Saturday, September 13, 2008

हिन्दी को आजादी चाहिए

आज लेखक, गीतकार प्रसून जोशी का लेख पढ़ा। उह्नोने हिन्दी भाषा को किसी दायरे में बांधने का बड़े सरल और सीधे शब्दों में विरोध किया। कॉलेज के समय गुरुजनों ने बताया था। समाचार लिखते समय आंचलिक शब्दों के प्रयोग से बचे, अंग्रेजी के अतिक्रमण से बचे। लेकिन मै समझता हूं और कुछ ये ही विचार जोशी जी के भी हैं। हिन्दी ख़ुद इतनी सक्षम और सशक्त है, विशाल ह्रदय है कि वो इन उतार-चढावों को अपने में समाहित कर लेती है। होना तो ये चाहिय की ये आंचलिकता भाषा में आनी चहिये ताकी पाठक भाषा से जुडाव महशूश कर सकें, लेकिन ये बात ध्यान में रखनी होगी की अति नही करनी है।
हर भाषा की तरह हिन्दी भी अपना रूप-रंग बदल रही है। इसका मतलब ये नहीं है कि वो अपना मूल रूप बदल रही है या उसकी आत्मा में परिवर्तन हो रहा है। ये परिवर्तन स्वभाविक है जो हर व्यक्ति, वस्तु और स्थान के साथ होते हैं। ये परिवर्तन जरुरी भी है क्यों कि ये भाषा की एकरूपता को तोडतें हैं। उसमें नया पन लाते हैं। हिन्दी को ख़ुद खेलने और खिलने की आजादी मिलनी चाहिय। हिन्दी तो सतत प्रवाहित धारा है धारा जरुरी नहीं की सीधी ही चले, आड़ी-तिरछी भी चलेगी। उसे उसी रूप में बहने नहीं दिया गया तो, उसके साथ अन्याय होगा।
आज हिन्दी की दुर्दशा का इक मुख्य कारण कुछ हिन्दी के पंडितो के द्वारा इसको इक दायरे में बाँध देना है। उनको शायद ये बात समझने में तकलीफ होती है कि परिवर्तन प्रकृति का नियम है। जो परिवर्तन के अनकूल अपने को ढाल लेगा उसका ही अस्तित्व होगा। ये बात इन महानुभावों को समझनी चाहिय कि ये नियम भाषा पर भी लागू होता है।
आज हिन्दी सारी दुनिया में परचम लहरा रही है। भारत से बाहर बसे लोग आज ब्लॉग, फिल्मों ,पत्र- पत्रिकवों के माध्यम से अपने विचारो को अभिव्यक्ती दे रहे हैं। हिन्दी फिल्में विदेशो में कितना अच्छा कारोबार कर रही हैं। अगर इस बदलते दौर में हिन्दी ना बदली तो हम केसे बहार के लोगो से संवाद स्थापित कर पाएंगे। संवाद न होने की स्थति में हम उनकी सभ्यता, संस्क्रति को समझ नही पाएंगे। इस से नुकसान हिन्दी को ही होगा। वह कभी प्रगति नही कर पायेगी.

Saturday, September 6, 2008

पानी के बुलबुले

पानी के बुलबुले सी है जिन्दगी
बनती है बिगडती है हर पल
कभी सपनों में कभी हकीक़त में
कभी अपनों में कभी बेगानों में।

बुलबुले की तरह जिन्दगी अनजान बेपरवाह
न आने का गम न जाने की परवाह
अगर आई है इस धरा पे तो जीना चाहती है
इस दुनिया के रंजो-गम को समेटना चाहती है।

बुलबुले की तरह जिन्दगी मदमस्त-मस्तमौला
ना देखती है आँगन गरीब का अमीर का
न देखती है हिन्दू न देखती है मुस्लिम
वो बनती हर आंगन वो बनती हर मजहब।

बुलबुले की तरह जिन्दगी आई है रंग भरने
कभी हँसी के कभी गम के
कभी हार के कभी जीत के
कभी हार कर जीत जाने का।

बुलबुले की तरह जिन्दगी आई है मिट जाने को
पर मिटने से पहले इस जन्हाँ को दे जाने को
कुछ यादें, कुछ रंग और जीने का फन
न बनने की खुसी न फूट जाने का गम।

Wednesday, September 3, 2008

दिल-ही-दिल में

मोहब्बत भी क्या चीज है
आँखों से शुरू होकर दिल में उतर जाती है।
साला आदमी की जान पर बन आती है।
खता आँखे करे भुगतना दिल, जीगर, किडनी को पड़े।

अगर वो हां करे तो समझो साला जान गई।
अगर वो ना करे तो सारी दुनिया जान गई
इस खतरनाक बीमारी को जो पालता है
दारू, गांजा, भांग, में शुकून पाता है।

धीरे-धीरे ये बीमारी स्वर्ग पहुंचती है
स्सला भरी जवानी में मोक्छ दिलवाती है
दिल के दौरे से भी चूक हो जाती है
लेकिन ये बीमारी जान लेकर जाती है।

कवियों, शयरों, गीतकारों ने हजारों टन रद्दी
मोहब्बत के फसाने लिखकर बर्बाद की है
इन मोहब्बत पसंद लोगों ने ही मयखानों
नाच- गानों के कल कारखानों को इज्जत दी है

कुछ भी हो मोहब्बत चीज है कमाल की
हो जाए तो मजा आ जाता है
स्साला दिन में तारों की तो बात छोड़ो
पुरा चाँद मय चांदनी नजर आता है।

बागों में भवरें, पतझड़ में सावन
रेगिस्तान समुंदर नजर आता हैं
दिल की धडकनों का न हाल पूछो साहब
चरों वोर सिर्फ़ महबूब नजर आता है

इसी लिए कहता हूं साहब
मोहब्बत, अमन- चैन का नगमा गावो
मुहब्बत करो इसे न भुलावो ...............