Sunday, February 10, 2019

Wednesday, May 7, 2014

विकल्प

'मुझको तुम्हारे साथ नहीं रहना...।Ó
पत्नी ने लगभग चीखते हुए कहा था। प्रकाश सन्न रह गया। इस से पहले वो कुछ बोल पाता। पत्नी ने फोन काट दिया। रात के साढ़े ११ बज रहे थे। रूममेट सो चुके थे, लेकिन प्रकाश की आंखों से नींद गायब थी। बार-बार पत्नी के कह गए कर्कश शब्द उसके कानों में गूंज रहे थे। सारी रात उसने करवटें बदल कर गुजारी। अपने को ही कोषता रहा। सुबह भी उसका मन नहीं लगा। नित्यकर्म से निबट कर तैयार होकर ऑफिस आ गया। पर काम में मन कहां लगाना था। उसने ऑफिस के फोन से ही पत्नी को फोन लगाया। हालांकि वो गलत नहीं था, लेकिन फिर भी उसने पत्नी से माफी मांगी। पत्नी टस से मस नहीं हुई। प्रकाश निराश हो गया। यह निराशा उसे अवसाद के भंवर में डूबोती चली गई।
प्रकाश व कविता की शादी को अभी कुछ माह ही हुए थे। साल पूरा होने में दो महीने बाकी थे। हालांकि दोनों आपस में प्रेम करते थे। परिवार के लोगों ने यह जाना तो उन्होंने विरोध किया, लेकिन दोनों की दृढ़ता व एक दूसरे में विश्वास देखकर पैर पीछे ले लिए। प्रेम को 'अरेंजÓ कर लिया गया। दोनों परिवारों की असहमत रजामंदी से हुई शादी से युगल के अलावा कोई खुश नहीं था।
प्रकाश को शादी के लिए खासे पापड़ बेलने पड़े थे।
दिल्ली के एक प्रतिष्ठित जनसंचार महाविद्यालय से पढ़ाई के दौरान उसका परिचय कविता से हुआ था। जो बाद में प्रेम में परिवर्तित हो गया। कोर्स खत्म होने के बाद उसने रोजगार की तलाश शुरू कर दी थी। गुजरात की एक एनजीओ के साथ उसने काम शुरू किया, लेकिन वेतन ढग़ का नहीं मिलने से कुछ समय बाद उसने मध्यप्रदेश के एक प्रतिष्ठित अखबार के इंदौर संस्करण में नौकरी कर ली। यह नौकरी पिछली से बेहतर थी वा वेतन भी अच्छा था, लेकिन इतना नहीं की वो अपनी गृहस्थी शुरू कर सके। यहां से भी जल्द उसका मन उचट गया। काफी दिनों तक बेरोजगार रहा। काफी हाथ पांव मारने के बाद उसे फिर से उत्तरप्रदेश के एक मीडिया हाउस के इलाहाबाद संस्करण में नौकरी मिल गई। इलाहाबाद व घर रायबरेली में ज्यादा फासला नहीं था। इसलिए उसको यह नौकरी पसंद आई। इलाहाबाद में ही उसने कुछ परिचितों के साथ किराए का कमरा ले लिया। रोजगार में स्थायित्व आने के बाद उसने कविता के सामने शादी का प्रस्ताव रखा। परिवार वालों की थोड़ी ना नुकुर के बाद शादी भी हो गई, लेकिन नियती को युगल की खुशी मंजूर नहीं थी।
प्रकाश काम व परिवार में संतुलन बनाने की खूब कोशिश कर रहा था। वह तेजतर्रार पत्रकार था। किसी बड़े घोटाले के उसे सुराग मिले थे, जिसकी चर्चा उसने अपने संपादकीय सहयोगियों से की थी। वह इसे खुलासे के लिए जरूरी तथ्य व दस्तावेज जुटाने में दिन रात लगा था। इधर, जैसा लव कम अरेंज शादियों में होता है। परिवार के लोग खुश नहीं थे। प्रकाश की काम में व्यस्तता व कम आय को ससुराल के लोग ने मुद्दा बना लिया था। वे कविता को भरते। वहीं कविता को सास-ससुर का अपेक्षित स्नेह व सहयोग नहीं मिल रहा था। इसका परिणाम यह हुआ कि कविता ने प्रकाश को बात बेबात ताने देने शुरू कर दिए थे। वो उसे अलग रहने के लिए मजबूर करती थी।
एक बार कविता ने फोन पर कह ही दिया-
'मुझे साथ नहीं रख सकते तो शादी क्यों कीÓ
' थोड़ा सब्र करो, मैं कोशिश कर रहा हूं। जल्द ही मैं तुम्हे इलाबाद बुला लूंगा।Ó
'हूं...। यह मैं कितने दिनों से सुन रही हूं। हर बार तुम बहाने बनाते हो।Ó
हालांकि नौकरी से प्रकाश को वेतन अच्छा मिल रहा था, लेकिन वह इतना पर्याप्त नहीं था कि एकाएक अलग गृहस्थी शुरू की जा सके। वह यह बात कविता को समझाता, लेकिन कविता नहीं मानती। धीरे-धीरे छोटी-छोटी बातों पर बहस हो जाना आम बात होने लगी थी। कविता के ताने प्रकाश को परेशान करते पर वो सह जाता। अपने मां-बाप को सास-सुसर को समझाता, लेकिन वे कहते 'शादी अपनी पसंद से की है अब झेलो...।Ó वह सब में सामंजस्य बिठाने की कोशिश करता।
इधर, कार्यालय में भी उसके लिए सबकुछ ठीक नहीं था। काम का भारी दबाव था। सुबह दस बजे ऑफिस जाता तो रात के आठ नौ बजे तक रूम पर वापस आ पाता कभी-कभी १० या ११ भी बज जाते। अखबार की नौकरी ने उसकी सामाजिक जिंदगी को खत्म ही कर दिया था। बिगड़ता वैवाहिक जीवन व काम का दबाब ने उसकी सोचने-समझने व तर्क शक्ति को कुंद कर दिया था। वो प्रकाश जो कॉलेज के जमाने में सभी की जान हुआ करता था, जिसके हंसमुख मिजाज कर हर कोई कायल था। आज वो कुम्भला सा गया था, लेकिन फिर भी वो जी रहा था।
आखिर वो मनहूस रात भी आ गई। कविता को किसी बात पर उसकी सास ने डांट दिया। दोनों में तू-तू, मैं-मैं हो गई। कविता ने रात के साढ़े ११ बजे ही प्रकाश को फोन कर दिया। प्रकाश बस थोड़ी देर पहले ही कमरे पर आया था। खाना खाकर बैठा ही था। कविता ने शिकायतें शुरू कीं। प्रकाश उसे समझाता रहा, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। उलाहनों से उसके भी सब्र का बांध टूट गया। वो भी विफर पड़ा। फिर क्या था।
कविता ने बोल दिया-'मुझे तुम्हारे साथ नहीं रहना।Ó प्रकाश ने अगले दिन सुबह भी पत्नी से फोन पर बात की, लेकिन बात नहीं बनी। प्रकाश ने संपादक को छुट्टी की अर्जी दी। किसी से कुछ बोले बिना ही रूम पर आया। सामान पैक किया और घर (रायबरेली) के लिए निकल पड़ा। घर पहुंचते ही उसे पत्नी व माता-पिता की एक दुसरे को लेकर शिकातें सुनने को मिलीं। उसने सब को समझाया, लेकिन एक भी नहीं माना।
प्रकाश इतना परेशान हो गया कि रोने लगा। फिर भी किसी का दिल नहीं पसीजा। निराश व उदास अपने कमरे में आया और बिस्तर पर औंधे मुंह लेट गया। वह कुछ सोच नहीं पा रहा था। समस्या का कोई हल नजर नहीं आ रहा था। प्रकाश को एक एक कर पत्नी, मां-बाप, सास-ससुर, संपादक, सहकर्मी सब की चौं-चौं ही सुनाई दे रही थी। उसके कान बहरे हुए जा रहे थे। दिमाग की नसें फटी जा रही थीं। आंखों के सामने अंधेरा छा रहा था। इन सब से मुक्ति का उसे सिर्फ एक ही विकल्प नजर आया।
'आत्महत्या...Ó।
दूसरे दिन प्रकाश का शव उसके कमरे में फंखे से झूलते मिला।

लेखक- अरुण कुमार वर्मा, भारतीय जनसंचार संस्थान, नई दिल्ली के पूर्व छात्र हैं। वर्तमान में राजस्थान पत्रिका में कार्यर्त हैं।
(नोट- आत्महत्या विकल्प नहीं है। यह कायरों का काम है। हालातों से लडऩा चाहिए। काश काहानी के पात्र प्रकाश ने भी लड़ाई लड़ी होती तो इतना होनहार पत्रकार समाज को कितना कुछ दे पाता।
यह कहानी काल्पनिक है। जीवित या मृत व्यक्ति से कोई संबंध नहीं है। अगर नाम या अन्य कोई चीज मेल खाती है तो यह महज संयोग समझा जाए।)

Friday, November 15, 2013

प्यारी-प्यारी जग से न्यारी
मेरी दुलारी सत्वा है।
खूब हंसाती और सताती
मन की रानी सत्वा है।
खुद खाएगी, खुद गायगी,
मन होगा तो बतलायगी,
नखरों से भी नखराली
मेरी प्यारी सत्वा है।
ममा के मन को भाती है,
पापा से हिलमिल जाती है।
दादा-दादी, नाना-नानी की,
आंखों का तारा है।
मामा के शब्दों में आती,
अपना प्यार खूब लुटाती
सब की प्रतिकृति सत्वा है।
सत्वा अब स्कूल जाएगी,
ज्ञान पाएगी, मान पाएगी।
खूब पढ़ेगी, खूब बढ़ेगी,
आवाम की आवाज बनेगी।
सत्वा अब, आगे बढ़ सबको,
सच की राह दिखाएगी,
'सत्यÓ नाम को सार्थक कर
सबका मान बढ़ाऐगी।
मेरी प्यारी भांजी का समर्पित। सत्वा खूब पढ़ो, संसार में ज्ञान का प्रकाश फैलाओ। मजलूमों की आवाज बनो और दुखियों का सहारा। बढ़े होकर कुछ ऐसा काम करना कि माता-पिता और पूरे परिवार को तुम पर गर्व हो। समाज कहे तुम उसकी प्यारी बेटी हो। तुम अभी तो शायद इन शब्दों के अर्थ नहीं समझ पावो, लेकिन एक दिन आएगा जब तुम इन शब्दों को जीवोगी। मेरा ढेर सारा आशीष। उत्तरोत्तर प्रगति करो।
अरुण कुमार वर्मा, तुम्हारा प्यारा मामा।

Thursday, April 18, 2013

छात्रावास नहीं 'मिलाÓ
भारतीय जन संचार संस्थान में दाखिला लेने के दौरान ही यह रहस्योद्घाटन हुआ कि संस्थान परिसर में लड़कों के लिए 'छात्रावासÓ की सुविधा उपलब्ध नहीं है, जबकि लड़कियों के लिए है। हालांकि थोड़ा बुरा लगा, लेकिन... फिर यह पता चला कि परिसर में लड़कों के लिए छात्रावास निर्माणाधीन है। थोड़ा संतोष मिला। खैर... कमरा खोजने की लड़ाई यहां से शुरू हुई। तब जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में मेरे विद्यालय के समय के सीनियर एमसीए में अध्ययनर्त थे। हालांकि खास परिचय नहीं था, लेकिन दूसरे सीनियर की मार्फत उनका पता मिला। फोन से सम्पर्क कर उनके छात्रावास पहुंचा (हॉस्टल का नाम भूल गया हूं)। मोआज्जम नाम है उनका। बड़े सहयोगी व उदार थे। दो दिन उनके ही यहां पड़ाव डाला। उन्हीं से पहले पहल बेर सराय की जानकारी मिली। यह भी पता चला की वहां कम किराए में कमरा मिल जाएगा। उम्मीद थी कि वह भी साथ चलेंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। वो व्यस्त थे।
मैं अकेले ही रूम की तलाश में निकल पड़ा। जेएनयू के गेट से बाहर बेर सराय की ओर जाते हुए मन में बार-बार विचार आया कि मोअज्जम भी साथ होते। कैसे कमरा खोजूंगा, कैसे बात होगी, कैसा माहौल होगा। बस... यही सोचता चलता चला गया। बेर सराय बस स्टॉप पर पहुंच कर थोड़ा ठिठका। अंदर की ओर जाती एक गली दिखाई पड़ी। बस उसी ओर चल पड़ा। उस संकरी से गली में आगे बढ़ता रहा। बड़ा अजीब सा माहौल था। एक मुख्य बड़ी गली के बाद कई छोटी-छोटी गलियां, ऊपर कई मंजिल मकान। कहीं-कहीं ऊपर से गिरता पानी, जमीन पर फैल गया था। तेज कदमों से आते-जाते लोग पानी की गिरती धार से बचते आगे बढ़ रहे थे। कुछ युवा बेतकुल्फी से चहल-कदमी करते चले आ रहे थे। आस-पास की दीवारों पर 'टू लेटÓ व कोचिंग संस्थानों के असंख्य विज्ञापन थे। दीवारों से झांकती स्टेशनरी, मोबाइल रिचार्ज, खाने-पीने की दुकानें। लखनऊ के पुराने 'अमीनाबादÓ जैसा ही नजारा था। काफी देर तक यहां-वहां घूमने के बाद मैंने कुछ स्थानीय से दिखते लोगों से कमरे के लिए पूछा। एक प्रेस वाले ने पास में ही एक खाली कमरे की जानकारी दी। वहां गया तो एक जाट भाई ( उनका नाम कुक्कू था) हाल में बने कमरे की तराई करने में व्यस्त थे। उनसे कमरे की बात हुई। कुक्कू बोले 'सात दिन में कमरा पूरी तरह से तैयार हो जाएगा।Ó
मैंने अंदर जाकर रूम देखा। वह लगभग १० गुणा १० का छोटा कमरा था, जिसमें अलग से बाथरूम, टॉयलेट व उससे सटता छोटा सा किचन था। कमरा पसंद आया या यूं कहने उससे सस्ता कमरा वहां पर नहीं था। हां... कहना पड़ा। किराया ३२ सौ रुपए तय हुआ। अग्रिम १ हजार रुपए देकर मैं वापस जेएनयू हॉस्टल आ गया। मोअज्जम को कमरा मिलने की बात बताई। इस दौरान कपिल ( आईईएमसी मेरे सहपाठी ) को फोन पर कमरा मिलने की सूचना दी। उनके पिता जी से कमरे के संबंध में बात हुई।
यहां से मैं वापस मुखर्जी नगर अपने एक सीनियर के पास चला गया। तय दिन मैं अपना बैग, एक गुदड़ी व चद्दर लेकर बेर सराय के रूम में पहुंच गया। दो दिन अकेले ही रहा। तीसरे दिन कपिल भी आ गया। अब हम दोनों उस छोटे से कमरे में रह कम एडजेस्ट ज्यादा कर रहे थे। दो बड़े मकानों के गलियारे में हमारे रूम का दरवाजा खुलता था। सीलन भरे कमरे में रोशनी का कोई नामोनिशान नहीं था। एक अजीब से गंध हमेशा आती रहती थी। गलियारे के प्रवेश द्वारा पर कोई गेट नहीं था, इसलिए आवारा कुत्ते अंदर तक चले आते। कई बार तो वो दरवाजा खुला होने पर हमारे कमरे तक में प्रवेश कर गए थे। बाहर ही जीनों के पास पानी खींचने के लिए मोटर लगा रखी थी। जब वह चलती तो वहां ढेर सा पानी फैला जाता, जिससे गलियारा हमेशा गीला बना रहता।
कहने को तो मैं दिल्ली में रह रहा था, लेकिन दिल्ली में रहने के इंतजाम ऐसे होंगे। सपने में भी नहीं सोचा था। उस कमरे से बचने के लिए मैं ज्यादा से ज्यादा वक्त आईआईएमसी परिसर में ही बिताता। इस दौरान कई साथ के दोस्तों ने रुपए बचाने या तंगी के चलते हमारे साथ रहने की इच्छा जाहिर की। कपिल भी ऐसा चाहता था ताकि थोड़े रुपए बच सके, लेकिन मैंने ही छोटा रूम होने का हवाला देकर मना कर दिया। मेरी बात बहुत दिनों तक नहीं चली और करीब डेढ़ महीने के बाद गौतम भी हमारे साथ आकर रहने लगा। उस छोटे से कमरे में यह सबसे मुश्किल समय था। रूम हमेशा गंदा रहता। चाय के कप, मूंगफली के छिलके हमेशा कमरे में बिखरे रहते। बिस्तर जमीन पर ही लगता था। हफ्ते के सातों दिन उसपर एक पतली धूल की परत देखी और महसूस की जा सकती थी। कमरे पर होते तो स्वच्छ हवा और धूप को तरस जाते। इस दौरान मेरी तबीयत खराब हो गई। सांस की समस्या होने से मेरा वजन काफी गिर गया। काफी इलाज के बाद तबीयत ठीक हुई। हमने उस छोटे से रूम में बड़े संघर्ष किए। करीब चार महीने वहां रहने के बाद तीनों की हिम्मत ने जवाब दे दिया। सामूहिकरूप से नया रूम लेने का निर्णय लिया गया। पास ही दो रूम का फ्लैट मिल गया। उस समय (२००७-०८) फ्लैट का किराया ५२ सौ रुपए था। लाइट व पानी अलग से। यहां ये बताना इसलिए भी जरूरी है कि कई आईआईएमसी के छात्र आर्थिक रूप से सक्षम नहीं थे। अब भी अमूमन यही हाल होगा। उन परेशानी भरे दिनों को याद करता हूं तो दु:ख होता है। सबसे ज्यादा गुस्सा तो इस बात का है कि आज आईआईएमसी छोड़े करीब पांच साल हो गए हैं। इसबीच पता चला कि जो नया छात्रावास बना वो भी लड़कियों के लिए आरक्षित कर दिया गया। लड़कियों को मिल रही सुविधा से कोई बैर नहीं है, उन्हें रहने-खाने की सुविधा अवश्य मिलनी चाहिए, लेकिन परिसर में अभी तक लड़कों के लिए छात्रावास की व्यवस्था नहीं हो पाई है। यह शर्मनाक है! मैं अपील करता हूं कि मेरे सहपाठी व अभिन्न मित्र अभिषेक रंजनसिंह की मुहीम में हिस्सा लें। अपने संस्मरण लिखें और पोस्ट करें। हमें छात्रावास के लिए लडऩा होगा।
अरुण कुमार वर्मा
पूर्व छात्र, आईआईएमसी, नई दिल्ली
राजस्थान पत्रिका उदयपुर में कार्यर्त।

Wednesday, October 24, 2012


तेरी  इस अदा पे •ुरबान,
ये जमीं, आसमां और वो जहां,
खुदा बस्ता है जहां,
और क्या वार दूं
इस मसूमियत पर,
तू बता...?
ये शोख, हसीनों से हंसी,
नशा तेरा,
आंखों से उतरता नहीं।
मंजनूं, फरहात, रांझा सा न सही,
पर  मेरी मुहब्बत,
 इन से •म भी नहीं।
ए• बार इ•रार •र लो तुम
भले दिल रखने •ो
तुम्हारी ए• 'हांÓ
भर देगी रंग •ोरे जीवन में
•ट जाएगी जिंदगी
फिर इस वहम में,
•ी उन•ो भी हम से प्यार था।
- अरुण वर्मा 'अश्•Ó


Saturday, October 13, 2012


ओ... नन्हीं परी,
खुशी •ा चिराग हो तुम,
सारे जहां •ी खुशियां ले•र आई हो।
अपनी ए• मुस्•ान भर से,
जीत लेती हो,
सारी थ•ान, गम-वो-दु:ख।
हमारे जीवन में तुम,
वरदान बन•र आई हो,
ए• झल• देख•र,
दिल में गुदगुदी सी होती है,
ममता हिलोरी लेती है।
तुम्हारे पास आने •ा जी •रता है,
रात दिन हम साथ खेलें,
ऐसा मन •रता है।
तुम्हारे साथ बिताए पल,
जीवन •ी अमोल निधि हैं।
तेरा खूब साथ मिले,
फिर से हम अपना 'बचपनÓ जीएं
ऐसा सोच •े मन पुल•ित है।
स्वस्थ रहो, निरोग रहो
ये 'मांÓमा दुआ •रता है।
...मेरी प्यारी भांजी •ो समर्पित।
अरुण वर्मा, सहाय• संपाद•, राजस्थान पत्रि•ा।

Sunday, May 13, 2012

मां

तेरी कोख में आकर ले
साबूत बना हूं।
मेरी सांस, दिल की धड़कन,
रंगो में खून की रवानी है,
तेरे वजूद से मेरी जिंदगानी है।
प्रसव की वेदना सह
मुझको, जहां में लाई हो,
मेरे लिए न जाने कितने,
कष्टों से पार पाई हो।
फिर भी ऊफ न कर,
नाजो से पाला है,
मेरी जरूरतों के लिए
अपने अरमानों का,
गला घोंट डाला है।
घर के कामकाज में उलझी,
खुद अस्त-व्यस्त रह,
हम को संभाला है।
हमको इंसान बनाने में,
अपने जीवन को खर्च डाला है।
कुछ मांगा नहीं,
बस देने की सूझी है।
अब, जब हूं मैं,
अपने पैरों पर,
कर नहीं पाता बहुत
फिर भी तू खुश है।
मां, तेरी सीख से,
रौशन मेरे अंधेरे हैं।
मुश्किल, हरपरेशानी बौनी लगती है,
पता है तेरी दुआ,
मेरे हौसलों में बसती है।
आज में जो कुछ हूं
बस तेरी दम पर हूं...।
मां, तुमसे बहुत प्यार करता हूं। मदर्स डे पर तुम्हारे लिए और दुनिया की हर मां के लिए।
अरुण वर्मा, सब एडिटर, राजस्थान पत्रिका, राजसमंद।