छात्रावास नहीं 'मिलाÓ
भारतीय जन संचार संस्थान में दाखिला लेने के दौरान ही यह रहस्योद्घाटन हुआ कि संस्थान परिसर में लड़कों के लिए 'छात्रावासÓ की सुविधा उपलब्ध नहीं है, जबकि लड़कियों के लिए है। हालांकि थोड़ा बुरा लगा, लेकिन... फिर यह पता चला कि परिसर में लड़कों के लिए छात्रावास निर्माणाधीन है। थोड़ा संतोष मिला। खैर... कमरा खोजने की लड़ाई यहां से शुरू हुई। तब जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में मेरे विद्यालय के समय के सीनियर एमसीए में अध्ययनर्त थे। हालांकि खास परिचय नहीं था, लेकिन दूसरे सीनियर की मार्फत उनका पता मिला। फोन से सम्पर्क कर उनके छात्रावास पहुंचा (हॉस्टल का नाम भूल गया हूं)। मोआज्जम नाम है उनका। बड़े सहयोगी व उदार थे। दो दिन उनके ही यहां पड़ाव डाला। उन्हीं से पहले पहल बेर सराय की जानकारी मिली। यह भी पता चला की वहां कम किराए में कमरा मिल जाएगा। उम्मीद थी कि वह भी साथ चलेंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। वो व्यस्त थे।
मैं अकेले ही रूम की तलाश में निकल पड़ा। जेएनयू के गेट से बाहर बेर सराय की ओर जाते हुए मन में बार-बार विचार आया कि मोअज्जम भी साथ होते। कैसे कमरा खोजूंगा, कैसे बात होगी, कैसा माहौल होगा। बस... यही सोचता चलता चला गया। बेर सराय बस स्टॉप पर पहुंच कर थोड़ा ठिठका। अंदर की ओर जाती एक गली दिखाई पड़ी। बस उसी ओर चल पड़ा। उस संकरी से गली में आगे बढ़ता रहा। बड़ा अजीब सा माहौल था। एक मुख्य बड़ी गली के बाद कई छोटी-छोटी गलियां, ऊपर कई मंजिल मकान। कहीं-कहीं ऊपर से गिरता पानी, जमीन पर फैल गया था। तेज कदमों से आते-जाते लोग पानी की गिरती धार से बचते आगे बढ़ रहे थे। कुछ युवा बेतकुल्फी से चहल-कदमी करते चले आ रहे थे। आस-पास की दीवारों पर 'टू लेटÓ व कोचिंग संस्थानों के असंख्य विज्ञापन थे। दीवारों से झांकती स्टेशनरी, मोबाइल रिचार्ज, खाने-पीने की दुकानें। लखनऊ के पुराने 'अमीनाबादÓ जैसा ही नजारा था। काफी देर तक यहां-वहां घूमने के बाद मैंने कुछ स्थानीय से दिखते लोगों से कमरे के लिए पूछा। एक प्रेस वाले ने पास में ही एक खाली कमरे की जानकारी दी। वहां गया तो एक जाट भाई ( उनका नाम कुक्कू था) हाल में बने कमरे की तराई करने में व्यस्त थे। उनसे कमरे की बात हुई। कुक्कू बोले 'सात दिन में कमरा पूरी तरह से तैयार हो जाएगा।Ó
मैंने अंदर जाकर रूम देखा। वह लगभग १० गुणा १० का छोटा कमरा था, जिसमें अलग से बाथरूम, टॉयलेट व उससे सटता छोटा सा किचन था। कमरा पसंद आया या यूं कहने उससे सस्ता कमरा वहां पर नहीं था। हां... कहना पड़ा। किराया ३२ सौ रुपए तय हुआ। अग्रिम १ हजार रुपए देकर मैं वापस जेएनयू हॉस्टल आ गया। मोअज्जम को कमरा मिलने की बात बताई। इस दौरान कपिल ( आईईएमसी मेरे सहपाठी ) को फोन पर कमरा मिलने की सूचना दी। उनके पिता जी से कमरे के संबंध में बात हुई।
यहां से मैं वापस मुखर्जी नगर अपने एक सीनियर के पास चला गया। तय दिन मैं अपना बैग, एक गुदड़ी व चद्दर लेकर बेर सराय के रूम में पहुंच गया। दो दिन अकेले ही रहा। तीसरे दिन कपिल भी आ गया। अब हम दोनों उस छोटे से कमरे में रह कम एडजेस्ट ज्यादा कर रहे थे। दो बड़े मकानों के गलियारे में हमारे रूम का दरवाजा खुलता था। सीलन भरे कमरे में रोशनी का कोई नामोनिशान नहीं था। एक अजीब से गंध हमेशा आती रहती थी। गलियारे के प्रवेश द्वारा पर कोई गेट नहीं था, इसलिए आवारा कुत्ते अंदर तक चले आते। कई बार तो वो दरवाजा खुला होने पर हमारे कमरे तक में प्रवेश कर गए थे। बाहर ही जीनों के पास पानी खींचने के लिए मोटर लगा रखी थी। जब वह चलती तो वहां ढेर सा पानी फैला जाता, जिससे गलियारा हमेशा गीला बना रहता।
कहने को तो मैं दिल्ली में रह रहा था, लेकिन दिल्ली में रहने के इंतजाम ऐसे होंगे। सपने में भी नहीं सोचा था। उस कमरे से बचने के लिए मैं ज्यादा से ज्यादा वक्त आईआईएमसी परिसर में ही बिताता। इस दौरान कई साथ के दोस्तों ने रुपए बचाने या तंगी के चलते हमारे साथ रहने की इच्छा जाहिर की। कपिल भी ऐसा चाहता था ताकि थोड़े रुपए बच सके, लेकिन मैंने ही छोटा रूम होने का हवाला देकर मना कर दिया। मेरी बात बहुत दिनों तक नहीं चली और करीब डेढ़ महीने के बाद गौतम भी हमारे साथ आकर रहने लगा। उस छोटे से कमरे में यह सबसे मुश्किल समय था। रूम हमेशा गंदा रहता। चाय के कप, मूंगफली के छिलके हमेशा कमरे में बिखरे रहते। बिस्तर जमीन पर ही लगता था। हफ्ते के सातों दिन उसपर एक पतली धूल की परत देखी और महसूस की जा सकती थी। कमरे पर होते तो स्वच्छ हवा और धूप को तरस जाते। इस दौरान मेरी तबीयत खराब हो गई। सांस की समस्या होने से मेरा वजन काफी गिर गया। काफी इलाज के बाद तबीयत ठीक हुई। हमने उस छोटे से रूम में बड़े संघर्ष किए। करीब चार महीने वहां रहने के बाद तीनों की हिम्मत ने जवाब दे दिया। सामूहिकरूप से नया रूम लेने का निर्णय लिया गया। पास ही दो रूम का फ्लैट मिल गया। उस समय (२००७-०८) फ्लैट का किराया ५२ सौ रुपए था। लाइट व पानी अलग से। यहां ये बताना इसलिए भी जरूरी है कि कई आईआईएमसी के छात्र आर्थिक रूप से सक्षम नहीं थे। अब भी अमूमन यही हाल होगा। उन परेशानी भरे दिनों को याद करता हूं तो दु:ख होता है। सबसे ज्यादा गुस्सा तो इस बात का है कि आज आईआईएमसी छोड़े करीब पांच साल हो गए हैं। इसबीच पता चला कि जो नया छात्रावास बना वो भी लड़कियों के लिए आरक्षित कर दिया गया। लड़कियों को मिल रही सुविधा से कोई बैर नहीं है, उन्हें रहने-खाने की सुविधा अवश्य मिलनी चाहिए, लेकिन परिसर में अभी तक लड़कों के लिए छात्रावास की व्यवस्था नहीं हो पाई है। यह शर्मनाक है! मैं अपील करता हूं कि मेरे सहपाठी व अभिन्न मित्र अभिषेक रंजनसिंह की मुहीम में हिस्सा लें। अपने संस्मरण लिखें और पोस्ट करें। हमें छात्रावास के लिए लडऩा होगा।
अरुण कुमार वर्मा
पूर्व छात्र, आईआईएमसी, नई दिल्ली
राजस्थान पत्रिका उदयपुर में कार्यर्त।
भारतीय जन संचार संस्थान में दाखिला लेने के दौरान ही यह रहस्योद्घाटन हुआ कि संस्थान परिसर में लड़कों के लिए 'छात्रावासÓ की सुविधा उपलब्ध नहीं है, जबकि लड़कियों के लिए है। हालांकि थोड़ा बुरा लगा, लेकिन... फिर यह पता चला कि परिसर में लड़कों के लिए छात्रावास निर्माणाधीन है। थोड़ा संतोष मिला। खैर... कमरा खोजने की लड़ाई यहां से शुरू हुई। तब जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में मेरे विद्यालय के समय के सीनियर एमसीए में अध्ययनर्त थे। हालांकि खास परिचय नहीं था, लेकिन दूसरे सीनियर की मार्फत उनका पता मिला। फोन से सम्पर्क कर उनके छात्रावास पहुंचा (हॉस्टल का नाम भूल गया हूं)। मोआज्जम नाम है उनका। बड़े सहयोगी व उदार थे। दो दिन उनके ही यहां पड़ाव डाला। उन्हीं से पहले पहल बेर सराय की जानकारी मिली। यह भी पता चला की वहां कम किराए में कमरा मिल जाएगा। उम्मीद थी कि वह भी साथ चलेंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। वो व्यस्त थे।
मैं अकेले ही रूम की तलाश में निकल पड़ा। जेएनयू के गेट से बाहर बेर सराय की ओर जाते हुए मन में बार-बार विचार आया कि मोअज्जम भी साथ होते। कैसे कमरा खोजूंगा, कैसे बात होगी, कैसा माहौल होगा। बस... यही सोचता चलता चला गया। बेर सराय बस स्टॉप पर पहुंच कर थोड़ा ठिठका। अंदर की ओर जाती एक गली दिखाई पड़ी। बस उसी ओर चल पड़ा। उस संकरी से गली में आगे बढ़ता रहा। बड़ा अजीब सा माहौल था। एक मुख्य बड़ी गली के बाद कई छोटी-छोटी गलियां, ऊपर कई मंजिल मकान। कहीं-कहीं ऊपर से गिरता पानी, जमीन पर फैल गया था। तेज कदमों से आते-जाते लोग पानी की गिरती धार से बचते आगे बढ़ रहे थे। कुछ युवा बेतकुल्फी से चहल-कदमी करते चले आ रहे थे। आस-पास की दीवारों पर 'टू लेटÓ व कोचिंग संस्थानों के असंख्य विज्ञापन थे। दीवारों से झांकती स्टेशनरी, मोबाइल रिचार्ज, खाने-पीने की दुकानें। लखनऊ के पुराने 'अमीनाबादÓ जैसा ही नजारा था। काफी देर तक यहां-वहां घूमने के बाद मैंने कुछ स्थानीय से दिखते लोगों से कमरे के लिए पूछा। एक प्रेस वाले ने पास में ही एक खाली कमरे की जानकारी दी। वहां गया तो एक जाट भाई ( उनका नाम कुक्कू था) हाल में बने कमरे की तराई करने में व्यस्त थे। उनसे कमरे की बात हुई। कुक्कू बोले 'सात दिन में कमरा पूरी तरह से तैयार हो जाएगा।Ó
मैंने अंदर जाकर रूम देखा। वह लगभग १० गुणा १० का छोटा कमरा था, जिसमें अलग से बाथरूम, टॉयलेट व उससे सटता छोटा सा किचन था। कमरा पसंद आया या यूं कहने उससे सस्ता कमरा वहां पर नहीं था। हां... कहना पड़ा। किराया ३२ सौ रुपए तय हुआ। अग्रिम १ हजार रुपए देकर मैं वापस जेएनयू हॉस्टल आ गया। मोअज्जम को कमरा मिलने की बात बताई। इस दौरान कपिल ( आईईएमसी मेरे सहपाठी ) को फोन पर कमरा मिलने की सूचना दी। उनके पिता जी से कमरे के संबंध में बात हुई।
यहां से मैं वापस मुखर्जी नगर अपने एक सीनियर के पास चला गया। तय दिन मैं अपना बैग, एक गुदड़ी व चद्दर लेकर बेर सराय के रूम में पहुंच गया। दो दिन अकेले ही रहा। तीसरे दिन कपिल भी आ गया। अब हम दोनों उस छोटे से कमरे में रह कम एडजेस्ट ज्यादा कर रहे थे। दो बड़े मकानों के गलियारे में हमारे रूम का दरवाजा खुलता था। सीलन भरे कमरे में रोशनी का कोई नामोनिशान नहीं था। एक अजीब से गंध हमेशा आती रहती थी। गलियारे के प्रवेश द्वारा पर कोई गेट नहीं था, इसलिए आवारा कुत्ते अंदर तक चले आते। कई बार तो वो दरवाजा खुला होने पर हमारे कमरे तक में प्रवेश कर गए थे। बाहर ही जीनों के पास पानी खींचने के लिए मोटर लगा रखी थी। जब वह चलती तो वहां ढेर सा पानी फैला जाता, जिससे गलियारा हमेशा गीला बना रहता।
कहने को तो मैं दिल्ली में रह रहा था, लेकिन दिल्ली में रहने के इंतजाम ऐसे होंगे। सपने में भी नहीं सोचा था। उस कमरे से बचने के लिए मैं ज्यादा से ज्यादा वक्त आईआईएमसी परिसर में ही बिताता। इस दौरान कई साथ के दोस्तों ने रुपए बचाने या तंगी के चलते हमारे साथ रहने की इच्छा जाहिर की। कपिल भी ऐसा चाहता था ताकि थोड़े रुपए बच सके, लेकिन मैंने ही छोटा रूम होने का हवाला देकर मना कर दिया। मेरी बात बहुत दिनों तक नहीं चली और करीब डेढ़ महीने के बाद गौतम भी हमारे साथ आकर रहने लगा। उस छोटे से कमरे में यह सबसे मुश्किल समय था। रूम हमेशा गंदा रहता। चाय के कप, मूंगफली के छिलके हमेशा कमरे में बिखरे रहते। बिस्तर जमीन पर ही लगता था। हफ्ते के सातों दिन उसपर एक पतली धूल की परत देखी और महसूस की जा सकती थी। कमरे पर होते तो स्वच्छ हवा और धूप को तरस जाते। इस दौरान मेरी तबीयत खराब हो गई। सांस की समस्या होने से मेरा वजन काफी गिर गया। काफी इलाज के बाद तबीयत ठीक हुई। हमने उस छोटे से रूम में बड़े संघर्ष किए। करीब चार महीने वहां रहने के बाद तीनों की हिम्मत ने जवाब दे दिया। सामूहिकरूप से नया रूम लेने का निर्णय लिया गया। पास ही दो रूम का फ्लैट मिल गया। उस समय (२००७-०८) फ्लैट का किराया ५२ सौ रुपए था। लाइट व पानी अलग से। यहां ये बताना इसलिए भी जरूरी है कि कई आईआईएमसी के छात्र आर्थिक रूप से सक्षम नहीं थे। अब भी अमूमन यही हाल होगा। उन परेशानी भरे दिनों को याद करता हूं तो दु:ख होता है। सबसे ज्यादा गुस्सा तो इस बात का है कि आज आईआईएमसी छोड़े करीब पांच साल हो गए हैं। इसबीच पता चला कि जो नया छात्रावास बना वो भी लड़कियों के लिए आरक्षित कर दिया गया। लड़कियों को मिल रही सुविधा से कोई बैर नहीं है, उन्हें रहने-खाने की सुविधा अवश्य मिलनी चाहिए, लेकिन परिसर में अभी तक लड़कों के लिए छात्रावास की व्यवस्था नहीं हो पाई है। यह शर्मनाक है! मैं अपील करता हूं कि मेरे सहपाठी व अभिन्न मित्र अभिषेक रंजनसिंह की मुहीम में हिस्सा लें। अपने संस्मरण लिखें और पोस्ट करें। हमें छात्रावास के लिए लडऩा होगा।
अरुण कुमार वर्मा
पूर्व छात्र, आईआईएमसी, नई दिल्ली
राजस्थान पत्रिका उदयपुर में कार्यर्त।
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