Saturday, November 8, 2008

इंतजार

इंतजार भी क्या लफ्ज है
हर इन्सान की जिन्दगी में शामिल है

इंतजार है कामयाबी का
इंतजार है दौलत-सोहरत का
इंतजार है अपनों का
इंतजार है प्यार का
इंतजार है खुशियों का

इंतजार में एक-एक पल सदियों सा लगता है
इंतजार में लोग एक पल में एक सदी जीतें है

कभी इंतजार खुशी है
तो कभी बेइन्तहां गम
इंतजार तड़प है
मीठा दर्द है, नाराजगी है, मुहब्बत है।

इंतजार सिर्फ़ उसका
जिसे हम दिलोजान से चाहते है
मुझको भी है इंतजार उसका
देखते है उसको कब.........

Thursday, October 30, 2008

क्यूं ये पागलपन है

नही मालूम क्या हुआ है मुझे
हर बार की तरह
फिर भावानाओं ने बाहुपास में जकडा है
मालूम है फिर से तड़प, आंशू और जुदाई होगी
लेकिन दिल है कि सुनने को तैयार नही।

सोचता हूं, मौला ने कर्म फरमाया है या सजा दी है
सब कि तरह मुझ को भी बनाया होता
लोगो से केसे काम निकलना है सिखलाया होता
मुझे में वो सारी बुराई डालता
जो जमाने में जिंदा रहने को जरुरी है।
मुझको भी खुदगर्ज और मौकापरस्त बनाया होता।

मुझको भी सिखलाता थोडी दुनियादारी,
चापलूसी और मक्कारी
ममता, प्यार और नेकनीयती न दी होती।
आँखों में आंशू देता लेकिन मगरमछी

मेरे मौला बड़ी मुश्किल से जी रहा हूं
अपनी इस सराफत पे कुढ़ रहा हूं
मेरे मालिक मुझ को भी शैतान बना
ताकि जिन्दगी के बचे दिन
चैन से काट सकूं..............

Wednesday, October 22, 2008

अजब सा हाल

जब से उससे मिला हूं
अजब सा हाल है
वो करीब होती है
तो दिल घबराता है
वो दूर होती है
तो चैन नही आता है
उसका ही चेहरा
सोती आँखों में
उसकी छुवन
महसूस होती है हर पल
उसकी मुस्कान
क्यों इतनी दिलकश लगती है
क्यों सिर्फ़ उसको सोचता हूं.....

Monday, October 6, 2008

दुल्हन बनेगी मेरी गुडिया

दुल्हन बनेगी मेरी गुडिया
पता नही कब बड़ी हो गई.

जैसे अभी कल ही की बात हो

जब हम दोनों गुड्डे गुडियों के खेल खेलते थे
साइकल की सवारी करते
स्कूल जाते, लडाई करते।
वो पढ़ती मै न पढने के बहाने करता
मै पिटता तो, तो उसकी सरारत समझता।

उसकी हाथो में लगी मेहंदी ने
बचपन की सारी यादों को रंग दिया
मेरी आँखों को तरल कर दिया

जानता हूं अब वो दौर खत्म हो गया

अब नए रिश्ते होंगे नई बात होगी
जीवन की नई, अलबेली शुरुवात होगी
इक नई और अनजानी डगर पर
वो अपने जीवन साथी के साथ होगी ।


लेकिन माँ की तरह भाई का दिल भी
ममता से सराबोर है घबराता है, पुलकित है
हर्षित है थोड़ा रुवासा भी है।

पता है ममता ये ज्वार उठाती......


Saturday, September 27, 2008

हिंदू या मुस्लिम



हिंदू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेडिये

अपनी कूर्सी के लिए जज्बात को मत छेडिये

हममें कोई हुण, कोई शक, कोई मंगोल है

दफ़न है जो बात उस बात को मत छेडिये

गर गलतियां बाबर की थी, जुम्मन का घर फिर क्यों जले

एसे नाजुक वक्त में हालात को मत छेडिये

है कहां हिटलर, हलाकू, जार या चंगेज खां

मिट गए सब कौम की औकात को मत छेडिये


छेडिये इक जंग, मिलजुल कर गरीबी के खिलाफ


दोस्त, मेरे मजहबी नगमात को मत छेडिये।


अदम गोंडवी

Monday, September 22, 2008

मेरी दोस्त

सांवली- सलोनी सी वो
झीलों के देश से
डरती है धूप से कहीं श्याम न हो जाए
श्याम कहीं उसका श्रृंगार हो न जाए।
वो पागल मस्तमौला हर चेहरे पर मुस्कान लाती
अपनी बातो से वो सबका मन छू जाती
आँखों में भरे सपने भावी जीवन के
बनाती मिटाती मिटा कर बनाती
चाहती हर रंग जीवन में भरना
लाल हरे नीले रंगों का संग करना
है अजब वो, पर गजब है उसके अंदाज
नखरों से नही प्यार से है उसका साज
सादगी उसमें बस्ती संस्कारो का श्रृंगार
सीधी वो भोली वो और कुछ खास
है दुआ ये रब दे उसे खुशियाँ अपार
तरक्की कामयाबी से हो जीवन गुलजार।
मेरी
दोस्त मधुलिका से आप भी हो रु-ब-रु।

Thursday, September 18, 2008

खोया राखी, सिंदूर, लाठी

लाशों के ढेर में शिनाख्त बच्चे की

उम्मीद-नउम्मीद अजीब कशमकश की

अपना नहीं तो लाल है किसी का

राखी है, सिंदूर है, लाठी है किसी का

किसकी लाश खोजू मैं, सब अपने

इस मौत के मंजर में अब नहीं अपने

छीना धमाको ने बेटा नहीं है

छीनी है राखी, लूटा है सिंदूर

तोडा है घर और छीना है सपना

कॉपी, कलम और किताबें खतम की

तोडा है चस्मा और बूढी लाठी

तोडी सुहागन के हाथो की चूड़ी

कुचला है मान अपने वतन का

करना ख़त्म अब इस द्हसत को है

इनको सबक अब हमें है सिखाना..........

Saturday, September 13, 2008

हिन्दी को आजादी चाहिए

आज लेखक, गीतकार प्रसून जोशी का लेख पढ़ा। उह्नोने हिन्दी भाषा को किसी दायरे में बांधने का बड़े सरल और सीधे शब्दों में विरोध किया। कॉलेज के समय गुरुजनों ने बताया था। समाचार लिखते समय आंचलिक शब्दों के प्रयोग से बचे, अंग्रेजी के अतिक्रमण से बचे। लेकिन मै समझता हूं और कुछ ये ही विचार जोशी जी के भी हैं। हिन्दी ख़ुद इतनी सक्षम और सशक्त है, विशाल ह्रदय है कि वो इन उतार-चढावों को अपने में समाहित कर लेती है। होना तो ये चाहिय की ये आंचलिकता भाषा में आनी चहिये ताकी पाठक भाषा से जुडाव महशूश कर सकें, लेकिन ये बात ध्यान में रखनी होगी की अति नही करनी है।
हर भाषा की तरह हिन्दी भी अपना रूप-रंग बदल रही है। इसका मतलब ये नहीं है कि वो अपना मूल रूप बदल रही है या उसकी आत्मा में परिवर्तन हो रहा है। ये परिवर्तन स्वभाविक है जो हर व्यक्ति, वस्तु और स्थान के साथ होते हैं। ये परिवर्तन जरुरी भी है क्यों कि ये भाषा की एकरूपता को तोडतें हैं। उसमें नया पन लाते हैं। हिन्दी को ख़ुद खेलने और खिलने की आजादी मिलनी चाहिय। हिन्दी तो सतत प्रवाहित धारा है धारा जरुरी नहीं की सीधी ही चले, आड़ी-तिरछी भी चलेगी। उसे उसी रूप में बहने नहीं दिया गया तो, उसके साथ अन्याय होगा।
आज हिन्दी की दुर्दशा का इक मुख्य कारण कुछ हिन्दी के पंडितो के द्वारा इसको इक दायरे में बाँध देना है। उनको शायद ये बात समझने में तकलीफ होती है कि परिवर्तन प्रकृति का नियम है। जो परिवर्तन के अनकूल अपने को ढाल लेगा उसका ही अस्तित्व होगा। ये बात इन महानुभावों को समझनी चाहिय कि ये नियम भाषा पर भी लागू होता है।
आज हिन्दी सारी दुनिया में परचम लहरा रही है। भारत से बाहर बसे लोग आज ब्लॉग, फिल्मों ,पत्र- पत्रिकवों के माध्यम से अपने विचारो को अभिव्यक्ती दे रहे हैं। हिन्दी फिल्में विदेशो में कितना अच्छा कारोबार कर रही हैं। अगर इस बदलते दौर में हिन्दी ना बदली तो हम केसे बहार के लोगो से संवाद स्थापित कर पाएंगे। संवाद न होने की स्थति में हम उनकी सभ्यता, संस्क्रति को समझ नही पाएंगे। इस से नुकसान हिन्दी को ही होगा। वह कभी प्रगति नही कर पायेगी.

Saturday, September 6, 2008

पानी के बुलबुले

पानी के बुलबुले सी है जिन्दगी
बनती है बिगडती है हर पल
कभी सपनों में कभी हकीक़त में
कभी अपनों में कभी बेगानों में।

बुलबुले की तरह जिन्दगी अनजान बेपरवाह
न आने का गम न जाने की परवाह
अगर आई है इस धरा पे तो जीना चाहती है
इस दुनिया के रंजो-गम को समेटना चाहती है।

बुलबुले की तरह जिन्दगी मदमस्त-मस्तमौला
ना देखती है आँगन गरीब का अमीर का
न देखती है हिन्दू न देखती है मुस्लिम
वो बनती हर आंगन वो बनती हर मजहब।

बुलबुले की तरह जिन्दगी आई है रंग भरने
कभी हँसी के कभी गम के
कभी हार के कभी जीत के
कभी हार कर जीत जाने का।

बुलबुले की तरह जिन्दगी आई है मिट जाने को
पर मिटने से पहले इस जन्हाँ को दे जाने को
कुछ यादें, कुछ रंग और जीने का फन
न बनने की खुसी न फूट जाने का गम।

Wednesday, September 3, 2008

दिल-ही-दिल में

मोहब्बत भी क्या चीज है
आँखों से शुरू होकर दिल में उतर जाती है।
साला आदमी की जान पर बन आती है।
खता आँखे करे भुगतना दिल, जीगर, किडनी को पड़े।

अगर वो हां करे तो समझो साला जान गई।
अगर वो ना करे तो सारी दुनिया जान गई
इस खतरनाक बीमारी को जो पालता है
दारू, गांजा, भांग, में शुकून पाता है।

धीरे-धीरे ये बीमारी स्वर्ग पहुंचती है
स्सला भरी जवानी में मोक्छ दिलवाती है
दिल के दौरे से भी चूक हो जाती है
लेकिन ये बीमारी जान लेकर जाती है।

कवियों, शयरों, गीतकारों ने हजारों टन रद्दी
मोहब्बत के फसाने लिखकर बर्बाद की है
इन मोहब्बत पसंद लोगों ने ही मयखानों
नाच- गानों के कल कारखानों को इज्जत दी है

कुछ भी हो मोहब्बत चीज है कमाल की
हो जाए तो मजा आ जाता है
स्साला दिन में तारों की तो बात छोड़ो
पुरा चाँद मय चांदनी नजर आता है।

बागों में भवरें, पतझड़ में सावन
रेगिस्तान समुंदर नजर आता हैं
दिल की धडकनों का न हाल पूछो साहब
चरों वोर सिर्फ़ महबूब नजर आता है

इसी लिए कहता हूं साहब
मोहब्बत, अमन- चैन का नगमा गावो
मुहब्बत करो इसे न भुलावो ...............


Thursday, August 28, 2008

अकेला हूँ

अकेला हूँ अपनों के बीच में

अपने लगते है पराये से

कमी कुछ नही है जीवन में

पर क्यों लगता है कुछ नही है पास में

जीत लेने को है अनंत आकाश

बाहें फैलाय कामयाबी बुलाती है

पर नही बड़ते कदम उसका आलिंगन करने को

सोचता हूँ ये कामयाबी क्या देगी मुझे

समाज में नाम, परिवार और प्रतिष्ठा

इक बनावाटी जिन्दगी, इक झूटी शान

नही चाहिए ये दायरे की जिंदगी

जिसमे सब बन्धनों में बंधा हो

जिसमे हर तरफ लक्ष्मन रेखा हो..........

Tuesday, August 26, 2008

परेशान हूँ मैं

कुछ दिनों से बड़ा परेशान हूँ मैं
कुछ लिखना चाहता हूँ पर लिख नहीं पाता हूँ ।

सोचता हूँ पर सोच नही पाता हूँ
विचारों ने भी दामन छोड़ दिया है।

शब्दों ने आकार लेना बंद कर दिया है
ऐसा लगता है अभिव्यक्ति अब मुश्किल है।

बस संस्थान के निर्देशों पर इस कलम को चलाना है ।
आगे का जीवन कलम की दलाली करके बिताना है ।

सोचता हूँ छोड़ दूँ इस बंधुवा कलम को
लेकिन............................................

Saturday, August 23, 2008

कृष्ण दीवानी ..........

तेरी बातें बड़ी सुहानी
कभी सूनी न ऐसी कहानी
भई बेगानी, कृष्ण दीवानी !

द्वरिका में राधा गोपी
घट घट घूमें वो तो जोगी
भई बेगानी, कृष्ण दीवानी !

श्याम से उसने लगन लगाई
सब के मन में जोत जगाई
भई बेगानी, कृष्ण दीवानी !

धड़कन बोले गिरधर-गिरधर
मन में शमाए कितने मंजर
भई बेगानी, कृष्ण दीवानी !

ऐसी भक्ति, ऐसी पूजा
देखा नहीं है कोई दूजा
भई बेगानी, कृष्ण दीवानी !

जप कर तेरे नाम की माला
रास का हाला विष का प्याला
भई बेगानी, कृष्ण दीवानी !

दर्शन दर्शन अँखियाँ तरसे
गिरधर तेरी मेहर को तरसे
भई बेगानी, कृष्ण दीवानी !

ज़ाहिर सर की कलम से
सृजन रात १२.२७ से १२.30

Thursday, August 21, 2008

शबाना को मुश्किल से मिला फ्लैट

अभी १७ तारीख को हिन्दुस्तान समाचार पत्र के फ्रंट पेज पर खबर थी। उसमें शबाना आजमी ने सी.एन.एन -आई बी एन के इक कार्यक्रम में बताया कि मुसलमान होने के कारण उन्हें मुंबई में फ्लैट खरीदने में दिक्कत हुई। इसी से मिलाती-जुलती कहानी सैफ अली खान की भी थी। ये तो हुई नामचीन लोगो की बात, अब मै बताता हूँ कि इक मेरे सहकर्मी भी इसी समस्या से दो चार हुए, गुनाह सिर्फ़ इतना कि वो भी मुसलमान थे। कुछ इसी तरह कि समस्या दलित और आदिवासियों लोगों के साथ भी होती है। तीनो का कुसूर सिर्फ़ और सिर्फ़ इतना होता है कि इक समाज के सबसे नीचे पायदान का होता है। जिसे सभ्य समाज गन्दा और अपने साथ में बैठने के काबिल नही समझता दूसरा अघोषित आतंकवादी है। और तीसरे का तो निवास स्थान ही जंगल है तो उसका शहर और कस्बों में क्या काम?
अगर बात मुसलमानों कि करें तो पश्चिम के कुछ देश जिनमे अमेरिका अग्रणी है, ने सारी दुनिया के मुसलमानों को आतंकवादी बताने कि मुहीम चला रखी है। हम लोग भी अपने मुसलमान भाइयों को अमेरिका के चश्मे से देखते हैं। अभी हाल में बंगलोर और अहमदाबाद में बम धमाके हुए। पुलिस ने तफ्तीश की और कुछ लोगो को पकड़ा जो की इक खास धर्म की वेश-भूषा के थे। अभी उन पर आरोप सिद्ध भी नही हुए हैं। लेकिन मीडिया वालों ने उनको आतंकवादी घोषित कर दिया। हो सकता है की उनमें से कुछ अपराधी हों लेकिन क्या कभी आपने ये सोचा है की हर आतंकवादी घटना के बाद इक ही धर्म के लोग क्यों पकड़े जाते है? घटना के कुछ समय के बाद ही पुलिस केस को हल केसे कर लेती है? केसे वो मुतभेड में अपराधी को मार गिराती है? अगर उसका नेटवर्क इतना ही तेज है तो वो घटना होने से पहेले ही केवों पता नही लगा लेती?

Thursday, August 14, 2008

अभिनव इंडिया, अनुपम इंडिया, अद्वितीय इंडिया

१०८ साल
बात वो बहुत पुरानी है।
आज ये नई कहानी है॥
साथ सारा देश है तेरे।
और सारी दुनिया दीवानी है॥

मिल्खासिंह और मल्लेस्वरी का रुदन है
और पीटी उषा का भी करुण क्रंदन है
सत्य, अहिंषा, संयम व सदभावना के संग
खुशियों से झूमते सारे देश का वंदन है

आतंकवाद के दौर में
अमरनाथ के शोर में
काल के कपाल पर
आँख की भी ताल पर

ये सुहानी रात है
इक नई सी बात है
झूमती है कामधेनु
जबरदस्त मात है

उड़ गया झू हो गया छू
सुनहरा हार है रूबरू
पल्झिनो का साथ है
क्या कमाल हाथ है।

हर तरफ है इक उमंग
बज रही है जलतरंग
बजा चीन में जन गन मन
नाच उठा है ये तन मन

जान ले ये बेखबर !
हाथ में है ये नजर!
खामोशी को चीर कर
आया है ये समर
जीत चुका है वो समर।

ऍम. आई जाहिर सर की कलम से ...........


Monday, August 11, 2008

जीत लिया सोना


आखिर कर २८ सालों बाद हमने सोना जीत ही लिया। इससे पहले १९८० में मोस्को में हॉकी ने हमें सोना दिलाया था। उस तारीख से कल की तारीख तक एक अरब का यह देश सोने के लिए तरसता रहा था। इस से पहले लिएंडर पेस उसके बाद कर्लुम्माहेस्वारी और पिछले ओलंपिक में राजवर्धन राठोड़ ने कांसा और चांदी का तमगा दिलवाया और किसी तरह लाज रखी। मजे की बात यह है की ११२ साल के ओलंपिक के इतिहास में किसी भारतीय ने पहली बार व्यक्तिगत स्पर्द्धा में सोना जीता है। सरकार इस जीत का सेहरा अपने सर बांधेगी। और सुरेश कलमंडी ( ओलम्पिक सिर्वेसर्वा) इसको अपने प्रयसों का प्रतिफल बतायेंगे ।
लेकिन क्या आप जानते है ? ये सोना कैसे मिला?
थोड़ा इस बारे में जानते हैं।
अभिनव के पिता उद्योगपति है और उन्होंने शूटिंग जैसे मंहगे खेल के लिए अभिनव के ऊपर पुरे पांच करोड़ खर्च किए और प्रक्टिस के लिए घर में ही शूटिंग रेंज बनवा दी. जो शायद हमारे देश का आम बाप अपने खिलाड़ी बच्चे पर नही कर पाएगा। मेरा यहाँ ये बात कहने का मतलब सिर्फ़ इतना है कि सरकार को यह ध्यान रखना चाहिए कि अगर ओलंपिक जैसी बड़ी खेल प्रतियोगिता में तम्गन जीतना है तो प्रतिभावान खिलाडियों को ऐसी सुविधा उनके आस-पास के खेल मैदानों तक पुहुचानी चाहिये। जिस तरह अभिनव को राज्य सरकारें इनाम देने की घोषणा कर रही है। ऐसे ही घोषणा सहर कस्बों के खिलाड़ियों के लिए करनी चहियें ।

Saturday, August 9, 2008

दोस्तों की याद













बचपन के खेल वो दोस्तों का साथ
बागों से आम, अमरूदों की चोरी
वो लुका-छुपी और छुवन-छुवाई
पेड़ों पे चढ़ने की शर्तें लगाना।

स्कूल को बंक करके मूवी को जाना
एक्जाम टाइम पे नकल की तैयारी
वो क्लास में खूब धूम मचाना
वो चीखना-चिल्लाना गाने गाना।

साथ बैठ कर, कुछ करके दिखाने की बातें
वो एमबीए, सिविल को करने की प्लानिंग
सपनों को हर हाल में सच करने की जिद
वो कामयाबी के लिए जी थोड मेहनत।

वो बैठक, हँसी और ठहाकों के दिन
रूठना- मानना, लड़इयो के दिन
गम और खुशी हर पल में शामिल
हर शैतानी और कामयाबी में शामिल ।

आज फिर से वो मुझको याद आ रहे
मेरे पलकों को नमी दे जा रहे
है दुवा की रहो सब सलामत सदा
और जिंदगी में रहे खुशियाँ सदा।

मेरे दोस्तों तुमको सलाम ...................

Wednesday, August 6, 2008

न्यूज़ रूम का हाल

किस पेज पर कौन से लीड
कौन सा फोटो कहाँ लगे
केप्सन साला कहाँ गया
ये ही मारा- मारी रोज।

हेडिंग बदलो, फॉण्ट बदलो
त्रुटियों का रखो ध्यान
नही तो सम्पादक का डंडा
चलेगा अपनी पूरी शान।

शोर- शराबा गरम दिमाग
खबर को रोको खबर को छोड़ो
टी पर ३३ टी पर ३२
एडिट करो बस फिट करो।

भरत जी बस दस मिनट
हरीश जी टाइम का रखो ध्यान
डेड लाइन से पहले काम
डेथ लाइन के हा समान

ये मंत्र सिर्फ़ रखना याद
विज्ञापन को रखना साथ
विज्ञापन न जाने पाए
चाहे न्यूज़ भले ही जाए ।


Saturday, August 2, 2008

ये खूनी खेल


मौत के सौदागरों ने जयपुर के बाद बंगलौर और उसके तुरंत बाद अहमदाबाद को निशाना बनाया । वो कहते है की हमने अल्लाह के निर्देश से ये बदले की कार्यवाही की है। लेकिन कोई उनसे पूछे किस से बदला और कैसा बदला। बदला उनसे जो बीमार थे, जो सड़क के किनारे अपना ठेला लगा कर अपने गुजर-बसर के लिए रोजी - रोटी कमाते थे । या फिर उनसे जो दिन भर का काम खत्म कर अपने घरों को वापस जा रहे थे। इस के पीछे हाथ चाहे जिसका हो एक बात तो पक्की है वो न तो हिंदू है न मुसलमान।
जिस मकसद की वो बात करते है या अगर वो ये कहते है की हमने बदला लिया है तो ये सिर्फ उनका भ्रम है। किसी के सिर से माँ-बाप का साया, किसी के घर का चिराग, हाथों से राखी, मांग से सिंदूर और किसी से उजले भविष्य उम्मीदे छीन कर अगर वो कहते है की हमने बदला लिया है। तो ये कैसा बदला जिसमे इन्सान ही इंसानियत को खत्म कर रहा है बदले के नाम पर।
अरे कातिलों ये बात समझो की आंख के बदले आंख पुरी दुनिया को अँधा कर देगी। इस से पहले की सारी दुनीया अंधी हो ये खूनी खेल बंद करो ....... बंद करो .....बंद करो ...........

Saturday, July 12, 2008

राजनीति का नाटक


आखिर कर वाम दलों ने समर्थन वापस ले लिया। जो सबसे अचरज की बात रही, वो थी समाजवादी पार्टी का कांग्रेस को समर्थन, ये वही समाजवादी पार्टी है जिसके नेतृत्व में तीसरे मोर्चे का गठन हुआ था। और जो सभों में भाजपा और कांग्रेस दोनों को कोसते थे। आज वो सांप्रदायिक ताकतों के विरुद्ध कांग्रेस को मजबूत कर रहे है। अगर भाजपा को हटा दे तो बाकि बची पार्टियां जिनका वो विरोध कर रहे है कभी उनके साथ गलबहियां कर रहे थे। ये है अवसरवादी राजनीति का लाजवाब उदाहरण और मुहावरे को चरितार्थ करता प्रकरण की राजनीति में न कोई स्थायी दोस्त होता है न दुश्मन । कांग्रेस और भाजपा का विकल्प की बात करने वाले तीसरे मोर्चे के नेता अब मजाक से लगते है।

Wednesday, July 9, 2008

कन्या भ्रूण की माँ से विनती

माँ तेरी ममता की परीछा
आज ये बेटी लेती है,
कोख में हूँ, मजबूर हूँ मै
पर आज ये तुमसे कहती हूँ।
तेरे जिगर का टुकडा हूँ मै
मुझे तुछ पर विस्वास है
तू समझेगी मेरी व्यथा बस
मुझको पुरी आस है।
चाहे कोई तुझको समझाए
या मेरे विरोध में भड़काए
पर अपना बंधन मजबूत हो इतना
की कोई हमको जुदा न कर।
माँ तू माँ है, अपनी
अपनी ममता पर वार न होने देना
इस बेटी को दुनिया में न लाकर,
बेटी को बादनाम न होने देना।
दुनिया को दिखा देना की
माँ बेटी का रिश्ता कितना प्यारा है
संदेश मिले हर माँ को ये की
"बेटी सबका सहारा है"

Tuesday, July 1, 2008

फ़ेल किया चार लाख बच्चों को

राजस्थान माध्यमिक शिक्षा बोर्ड ने चार लाख बच्चों को फ़ेल कर दिया। अब आप सहज ही अंदाजा लगा सकते है की राज्य में शिक्षा का क्या स्तर है।

Sunday, June 29, 2008

आप में है वो बात


हाँ सिर्फ़ आप में है वो बात जो और किसी में नही। ये बात भूल जाए की कोई आप से श्रेष्ट है। आप पुरी दुनिया में एक हो, आप जैसा कोई नही । ईस्वर की सर्वश्रेष्ट कृति हो आप। हर पल हर लम्हा आप को बनाने वाला आप के साथ है। बस कमी है तो सिर्फ़ अपने आप को पहचनाने की। आप सुब कुछ कर सकते हो, जरुरत है सिर्फ़ और सिर्फ़ आत्मविश्वास की। अपने आप को पहचानो और निकल पडो दुनिया को अपने मुट्ठी में कर लेने को। कड़ी मेहनत को अपना हथियार बनवो। ईस्वर पर भरोसा रखो, धर्य से काम लो, और देखना कामयाबी इक दिन तुम्हारे कदम चूमेंगी। मुश्किले तुम्हरे शामने ठहर नही पायेगी। कामयाबी तुम्हारा इस्तकबाल करेगी।

Monday, June 23, 2008

हाय-हाय महंगाई


लो भइया ! मुद्रास्फिति अपने १३ साल पुराने रिकार्ड को तोड़ कर ११.२ के क़रीब पहुंच गई। अर्थशास्त्र में पढा था कि जब मुद्रास्फिति ५ से ६ के बीच में हो तभी वो किसी भी विकासशील देश के लिए सही और उन्नति लाने वाली होगी। अगर ये आकंडा ६ से उपर हुआ तो समझ लो की अर्थव्यवस्था में महंगाई और बेरोजगारी अपने चरम पर होगी देश का बैंड नही पुरा का पुरा ऑर्केस्ट्रा बजेगा। ये समझ लीजिये अपने देश का ऑर्केस्ट्रा बज रहा है। वीपक्च इस ओर्केस्ट्रा में जहाँ नाच रहा है। वही सत्तापक्च परेशान है।

Friday, June 20, 2008

अरुषि को बना दिया मजाक


हमारे अपने भाई बंधूवों ने, अरे.......... नही समझे मीडिया वाले भाई लोगो ने एक १८ साल की बच्ची की मौत का खूब मजाक उड़ाया। टीवी चैनलों ने खूब टी.र.पी कमाई। उस से लेकर उसके खानदान भर के अवैध सम्बन्धों का खुलासा किया। उस दौर में लग रहा था। पूरी दुनिया में इससे बड़ी और कोई घटना ही नही घटी। ख़ैर छोड़ो इस बहस को आप और हम जानते ही है कि पत्रकारिता अब मिशन नही पैसा कमाने का साधन बन गयी है। ये पोस्ट सिर्फ़ इस लिए लिख रहा हूँ कि अभी अमर उजाला का इ पेपर पढ़ रहा था। उस पर समाचार था कि अब अरुषि का एम.एम.स भी बाजार में आ गया है। उसमे लिखा था कि अरुषि के नाम कि लोकप्रियता भुनाने के लिए उसकी जैसी लड़की को शूट करके एम.एम.स बाजार में उतारा गया है जिससे अच्छा रूपया कमाया जा सके। रूपया तो कमा सकते है। लेकिन प्रश्न यह है कि ये जो रुपया कमाया , टी.आर.पी कमाई वो अरुषि को बेच कर कमाई या अपने जमीर को बेच कर

Thursday, June 19, 2008

मेरा गांव

आज अचानक ही मामा का फ़ोन आया। उन्होंने पूछा आम खाने नहीं आवोगे जो अमूमन वो हर गर्मी की छुट्टियां शुरु होने पर पूछते थे। मै थोडी देर तक परेशान रहा की मै ये कैसे भूल गया की ये आम का सीजन है। बीते हुए सालों में इस समय मै अपने गांव में होता था। रह -रह कर मुझे हर वो बात और शैतानी याद आने लगी जो मै बचपन में किया करता था। आम के बागों से आम चुराना उनको बेच कर मिले पैसों से सिनेमा देखने जाना। सुबह जल्दी उठकर सीप (पका आम ) बीनने जाना। रात में बागवानी या बाग़ की रखवाली करने के लिए बाग़ में रुकना। तालाब से मछली पकड़ना और उन्हें भुन कर खाना और जब नाना को ये बात पता चलती थी तो मार भी खता था।
वो नानी की कहानियाँ वो माँसी से खटपट वो चुपके -चुपके गेहू बेच कर बरफ ( एस्क्रीम")खाना।
जाने कहना खो गया ..........................

Sunday, June 8, 2008

बचपन की सोच

बचपन मे स्कूल मे जब राजस्थान के बारे मे पढ़ा था। तो बाल मन मे ये धरना बन गयी थी कि पूरा राजस्थान रेगिस्तान है। जो जवानी के २२ बसंत देखने के बाद भी बनी रही। आज जब मैं राजस्थान के सहर उदयपुर मे रोजी-रोटी के सिलसिले मे हूँ। राजस्थान को देख, सुन और समझ रहा हूँ। तो अपने ज्ञान पर हँसी आती है। आज ही मैं ने यहाँ हुई बारिस का भरपूर आनंद लिया।

Saturday, June 7, 2008

कुछ उदयपुर के बारे मे

इस जगह की जितनी तारीफ की जाए उतनी कम है। चारो ओर से अरावली की पाह्डियो से घिरा यह सहर, अमन और शान्ति का है। हालाकिं मुझे यहां की भाषा समझने मे थोडी कठनाई होती है। लेकिन इससे कोई खास फर्क नही पड़ता। लोग इतने प्यारे है कि सारी दिककते अपने आप दूर हो जाती है। खाने की क्या बात करे यहां के नटराज (खाने की दुकान) ने हम खाने के सहुकीनो का दिल जीत लिया। इतने प्यारे से खाना खिलाते है जयसे माँ खिलाती है। आबो -हवा के क्या कहने ठंडी-ठंडी हवा सुबह को रंगीन बनाती है। शाम को झीलों ( पिछोला, फतेह्सागर,दूध तलाई ) के किनारे बैठने का मजा ही कुछ और है। नीमच माता और करनी माता ने अपना आवास पहन्डियो के ऊपर बनाया है मन्दिर मे जा कर माँ का आशीर्वाद तो मिलता ही है सहर का बहुत खूबसूरत नजारा मिलता है आज तक के लिए बस इतना ही .............................

Monday, February 11, 2008

सारे लोग जो वर्तमान में हो रही घटनाओ को लेकर सोचते है , विचार रखते है इस ब्लोग पर लिखने के लिए आमंत्रित है.