Friday, April 13, 2012

जुशत्जु

तेरी जुशत्जु,
तेरा यकीन क्यों है?
जब खत्म होनी है बात,
तो दिल में खलिश क्यों है।
्रमंजिल-रास्ते,
जात-पात,
धन-दौलत,
रंग-ढग़ और शहूर,
सोचने-समझने,
हर अंदाज अलग,
फिर धड़कनों का साज,
एक क्यों है?
पता है,
ये मुमकिन नहीं,
फिर, ये भ्रम,
ये आस क्यों है।
खुद के सवाल,
खुद के जवाबों का,
सिलसिला अजब है।
खोने का डर,
पर हाथ कुछ नहीं है,
ये टीस,
ये दर्द,
यह ख्याल गजब है।
इस शय को कहते हैं,
प्यार अगर...
मौला का इकबार,
फिर से करम है।
सोचता हूं,
इस आरजू,
ख्याल को दफन कर दूं,
पर कैसे तेरी,
इबादत खत्म कर दूं...।

शादी

समाज के दायरे में
रिवाजों में बंधा,
पाक रिश्ता,
शादी का ये,
जहां, मिलते अनजाने दो,
एक-दूजे का हो जाने को।
जलसा,
अरमानों का सजता है,
अपनों का आशीष,
प्रेम बरसता है।
खुशी-गम,
मिलन-बिछोह के,
भावों में खो 'कुनबाÓ
एक, सूत्र में बंधता है।
चलता है दौर मनुहार का
मस्ती-धमाल होता है।
खुशियां चहकती हैं आंगन में
गीत-गानों से,
इजहार होता है।
हर तरफ,
मुस्कान सजी नजर आती है।
खुशी दिल की बड़ी,
धड़कनों से पता चल जाती है।
दो जिस्मों को एक जां
बनाने का जतन होता है।
अपने अरमानों को,
पूरा करने का यतन होता है।
चलता है बधाइयों का दौरा
खाने-पीने,
नाज-नखरों का दौर।
आखिर समय आता है,
दूल्हा-दूल्हन को,
एक अनजानी डगर पर छोड़,
दु:ख-सुख,
में साथ रहने का हौसला दे,
कारवां आगे बढ़ जाता है।
यहां खत्म रीत होती है,
प्रीत यहां से शुरू होती है,
युगल के साथ दो परिवार चलते हैं,
शायद,
समाज ऐसे ही बढ़ते और बढ़ते हैं.....