Friday, April 13, 2012

जुशत्जु

तेरी जुशत्जु,
तेरा यकीन क्यों है?
जब खत्म होनी है बात,
तो दिल में खलिश क्यों है।
्रमंजिल-रास्ते,
जात-पात,
धन-दौलत,
रंग-ढग़ और शहूर,
सोचने-समझने,
हर अंदाज अलग,
फिर धड़कनों का साज,
एक क्यों है?
पता है,
ये मुमकिन नहीं,
फिर, ये भ्रम,
ये आस क्यों है।
खुद के सवाल,
खुद के जवाबों का,
सिलसिला अजब है।
खोने का डर,
पर हाथ कुछ नहीं है,
ये टीस,
ये दर्द,
यह ख्याल गजब है।
इस शय को कहते हैं,
प्यार अगर...
मौला का इकबार,
फिर से करम है।
सोचता हूं,
इस आरजू,
ख्याल को दफन कर दूं,
पर कैसे तेरी,
इबादत खत्म कर दूं...।

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